20 वर्ष की उम्र में भी होती है रसौली

20 वर्ष की उम्र में भी होती है रसौली

रसौली या कहें फाइब्रायड महिलाओं की एक आम समस्‍या है जो आम तौर पर बच्‍चेदानी या गर्भाशय में छोटी-छोटी गांठों के बनने से होती है। फोर्टिस बसंत कुंज अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. प्रदीप मुले के अनुसार बच्चेदानी या गर्भाशय में रसौली दरअसल महिलाओं में आमतौर पर पाया जाने वाला ट्यूमर या गांठ है।

यह ट्यूमर आकार में बेहद छोटे से लेकर कितना भी बड़ा हो सकता है। कई बार तो इस मर्ज के कारण पेट पांच महीने की गर्भावस्था जैसा प्रतीत होता है। यह मानना कि किसी खास उम्र में ही रसौली होती है, गलत है। बीस वर्ष से लेकर 40 वर्ष की उम्र में भी रसौली या फाइब्रायड हो सकती है।

बहुत अधिक या लंबे समय तक मासिक धर्म, अनियमित खून के थक्कों का आना, पेट के निचले हिस्‍से, पीठ व पैरों में दर्द, बार-बार मूत्रत्याग की इच्छा मगर मूत्रत्याग न होना, आंतों पर दबाव से कब्ज होना तथा पेट का साधारण रूप से बढ़ना इस बीमारी के आम लक्षण हैं। रसौली के होने की पुष्टि अल्‍ट्रासाउंड द्वारा होती है और कभी-कभी एमआरआई स्कैन की जरूरत भी होती है।

रसौली का इलाज तीन तरह से किया जाता है। दवाइयों द्वारा,  ऑपरेशन या लैप्रोस्कोपी द्वारा इलाज बेहद कष्टदायक अनुभव होता है। इसमें मरीज को पूरी तरह बेहोश किया जाता है और ऑपरेशन के बाद 5 से 10 दिन अस्पताल में गुजारना होता है। इन दोनों विधियों के उलट अति सूक्ष्म छिद्र विधि भी अब प्रचलन में है।

यह विधि ज्यादा पुरानी नहीं है और 1995 से ही इसका प्रयोग हो रहा है। मगर अब भारत में भी कई जगह डॉक्टर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इस विधि में रोगी को अस्पताल में एक ही दिन रहने की जरूरत होती है। महिलाएं 1 से 3 दिन में सामान्य कामकाज कर सकती हैं और इसमें बच्चेदानी को निकालने की जरूरत नहीं होती है।

इस तकनीक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें एक ही बार में सभी रसौलियों का इलाज हो सकता है। इस तकनीक का इस्तेमाल उन मरीजों में किया जा सकता है जिन्हें रसौली हो या जिनमें रसौली की संभावना हो तथा जिन्हें भविष्य में गर्भधारण न करना हो। इसमें रोगी के शरीर पर ऑपरेशन का कोई निशान नहीं आता है।

योगगुरू सुनील सिंह के अनुसार गर्भाशय की रसौली की आखिरी अवस्था में योग का कोई असर नहीं होता है। तक सिर्फ ऑपरेशन ही इसका इलाज है लेकिन रोग की प्रारंभिक अवस्था में कुछ आसनों के नियमित अभ्यास से रसौली में बेहद फायदा होता है। इन आसनों में सेतु आसन, सर्वांग आसन, चक्रासन, विपरीत कर्णी मुद्रा और उड्यान बंध शामिल हैं।

सर्वांग आसन का अभ्यास सिर्फ एक बार ही करें और इसे करने के बाद शवासन जरूर करें। जैसा कि इस आसन के नाम से ही स्पष्ट है यह शरीर के हर अंग का व्यायाम करवाता है। इसे करने से सिर्फ रसौली में ही नहीं, शरीर के यौंनागों, गर्भाशय के विकार, मासिक धर्म की समस्याएं आदि भी दूर हो जाती हैं। इसके अलावा फेफड़ों में रक्त का संचार भली भांति होने लगता है। हृय को बल मिलता है, दमा और टीबी जैसी बीमारियों में भी फायदा होता है। उच्च रक्तचाप, हृय रोगी, सार्वाइकल के मरीज, गर्भवती महिलाएं और मासिक धर्म के दौरान यह आसन नहीं करना चाहिए।

उधर, वैद्य अच्युत कुमार त्रिपाठी के अनुसार रसौली एक आम स्त्री राग है। आयुर्वेद के अनुसार ऋतुकाल में गर्भाशय से रक्तस्राव को आर्तव कहते हैं। किसी कारण से आर्तव में अवरोध होने से गर्भाशय में छोटी छोटी ग्रंथियां बन जाती हैं। आर्तव में अवरोध ऋतुकाल में महिलाओं द्वारा रूक्ष और वातवर्द्धक भोजन करने या भोजन का त्याग करने, अधिक रक्तस्राव होने पर उसे रोकने के लिए एलोपैथी की दवाइयां खाने आदि के कारण होता है।

इन कारणों से महिलाओं में वमन की प्रक्रिया तेज होती है जिससे प्रकुपित वायु गर्भाशय के मुख में प्रवेश कर वहां से प्रतिमाह स्रावित होने वाले रक्त को रोक देती है जिससे छोटी छोटी गाठें बनने लगती हैं। ये गांठें गर्भाशय का आकार बढ़ा देती हें। सांस लेने में तकलीफ, चलने में मांस फूलन, अंगों में पीड़ा, प्यास ज्यादा लगना, हलका बुखार आदि इस बीमारी के लक्षण हैं।

ये गांठें 40 से 50 वर्ष की आयु में प्रायः पाई जाती हैं। इलाज के लायक ग्रंथियां राई या चावल के दाने के बराबर होती हैं परंतु आकार बड़ा होने पर जांच आदि के उपरांत उचित निदान किया जाता है। आयुर्वेद में इसके इलाज के लिए सही भोजन की सलाह दी जाती है। इसके अलावा चिकित्सक बीमारी के लक्षणों के अनुसार दवा देते हैं।

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